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यह कथा ककसी पुराण में नहीं ममलेगी। यह मेरी कथा है। मैं
आपको कोई लोकप्रचललत इकतहास बताने नहीं जा रहा। मैं
आपको अपनी कल्पना के धरातल पर खड़ा करना चाहता हूँ। वह
कल्पना जो मुझे प्रेररत करती है, उत्तेजजत करती है, नई सुगंध दे ती
है और इस संसार को दे खने का एक कवस्तृत, –कनष्पक्ष और सुंदर
दृकिकोण सौंपती है।
इस कथा में मैंने वही संसार रचा है, जो मेरे आसपास प्रत्यक्ष या
अप्रत्यक्ष रूप से चलता है। मात्र कालखंड पररवर्तित ककया है। यह
वह कालखंड था, जजसमें मेरी कल्पना के कवस्तार के ललए पयााप्त
अवसर थे। मनुष्य युगों पूवा का हो या वतामान का, मानवीय गुण-
धमा में कुछ अमधक पररवतान नहीं हुआ है।
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मेरे मन में भी इसी कल्पना ने एक युग के धरातल का कनमााण
ककया। उसकी सभ्यता, संस्कृकत और समाज का ढाूँचा खड़ा ककया।
पूवायुगीन पात्रों को बनाया और उनके आपसी संबंधों को जोड़ा।
~ कववेक कुमार
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कवधान
6,300 वषा पहले भी सूया उसी प्रकार उगा करता था, जैसे कक
आज। उगते सूया के प्रकाश में कवधान ने अपने शरीर को दे खा।
कपछले छह वषों के कठठन शस्त्राभ्यास ने उसके शरीर को बललष्ठ
बना ठदया था। उसका वक्ष चौड़ा, भुजाएूँ स्नायुबद्ध, पपिडललयाूँ
मजबूत तथा जंघाएूँ ठोस हो गई थीं। इतने वषों में उसने लगभग
हर प्रकार के शस्त्र चलाना सीख ललया, कवशेषकर तलवार और
भाला।
चढ़ते सूया का नरम ताप उसके शरीर को गुनगुना आराम पहुूँचा रहा
था। वह आूँगन में खड़ा होकर माूँ की पूजा समाप्त होने की प्रतीक्षा
करने लगा। माूँ आूँगन के मध्य स्थाकपत तुलसी पर जल चढ़ा रही
थीं, उनकी पूजा समाप्त होने में अभी समय था। उसने सोचा, जब
तक माूँ की पूजा समाप्त होगी, तब तक नए घड़ों को बाहर कनकाल
दूँ । वह रसोई की बगल वाली कोठरी से ममट्टी के नए घड़ों को
कनकालकर आूँगन में रखने लगा। पूरे गाूँव में कवधान के कपता ही
एकमात्र कुंभकार थे, उनकी मृत्यु के पश्चात उसकी माूँ ही घड़े
बनाती थी। माूँ ने भरसक प्रयास ककया कक वह भी उस काया में लग
जाए, परंतु उसमें योद्धा बनने की उत्तेजना समाई हुई थी। योद्धा
बनकर ही वह अपने जीवन का एकमात्र लक्ष्य पूरा कर सकता था।
“गुरु काण ने इस संदभा में कभी कोई संकेत नहीं ठदया।” कवधान ने
कहा।
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“वैसे, तुम्हारी क्या इच्छा है भइया ?”
अपनी इच्छा के बारे में सोचकर कवधान का ताप बढ़ने लगा। कुछ
क्षणों तक चुप रहने के बाद भौंहें लसकोड़कर बोला- “मेरी इच्छा तो
उस नीच सुदास का मुंड है, परंतु गुरु काण तो प्रकतशोध को कवष
समझते हैं।”
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“माूँ ने महुआ बीनने भेजा है। माूँ, कपता जी को भड़काती रहती हैं
कक मैं ठदनभर केवल लट्टू नचाता रहता हूँ और कायों में हाथ नहीं
बूँटाता। मैं कायों में रुमच लूूँ इसललए महुआ बीनने भेज ठदया...
भला महुआ बीनकर कायों में रुमच कैसे उत्पन्न हो सकती है?”
सत्तू ने नाक लसकोड़कर कहा।
“मेरा जन्म महुआ बीनने के ललए नहीं हुआ है।” सत्तू ने गरदन
ऊूँची करके कहा।
“तो महान सत्तू का जन्म ककस उद्दे श्य के ललए हुआ है?” कवधान ने
मुस्कराते हुए पूछा।
सत्तू थोड़ा झेंप गया। बोला, “बस उसी पर कवचार करते-करते मैं
दुबाल और चचिताग्रस्त हो गया हूँ।”
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“हाूँ! वही, कहते हैं कक जब वे आक्रमण करते हैं, तब न छु पने की
जगह ममलती है, न भागने की। अधीनता स्वीकारने के ललए मात्र
एक अवसर दे ते हैं। यठद स्वीकार कर ली, तो उन्हीं की संस्कृकत
अपनानी होती है और यठद नहीं की तो अगले ही क्षण मुंड, रुं ड से
अलग हो जाता है।“
“जन्म से ही सुनता आ रहा हूँ, दै त्य वापस आ रहे हैं। कपछले तीन
सौ वषों से ककसी ने उन्हें दे खा तक नहीं, संभवतः अब तक वे
जीकवत ही न हों... और तुझे ककसका भय... तू तो सम्राट बनने
वाला है... खदे ड़कर रख दे ना उन दै त्यों को...” कवधान उसकी पीठ
ठोंकता हुआ बोला।
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किर उसने शांकत की ओर संकेत कर कहा- “आजकल इसका
व्यवहार बदल गया है, आलसी हो गई है, पहले जजतनी उद्दं ड न
रही... सत्तू को दे खने पर सींग भी नहीं ठदखाया... और इसका उदर
िूलता जा रहा है, लगता है गर्भिणी है।”
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कोयल ने तुरत
ं प्रकतयोकगता में शाममल होकर और जोर से कूक
लगाई। कवधान उसे मचढ़ाने के ललए बार-बार कूक लगाता और वह
दं भी कोयल हर बार और जोर से कूकती। यह कूक प्रकतयोकगता
तब तक चलती रही, जब तक कक वन का आखखरी छोर न आ
गया। कवधान ने अपनी ओर से कोयल को कवजेता घोकषत कर आगे
की राह ली। आगे गन्ने का बहुत बड़ा खेत था, जजसे पार करते ही
गुरु काण का आश्रम ठदखने लगता था।
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मचह्न लेकर वह खेत में घुस गया। आज वह एक सप्ताह बाद
आश्रम जा रहा था। गुरु काण ने कहा था कक उन्हें कुछ
आध्यात्त्मक अनुभूकतयाूँ हो रही हैं, अतः वे कुछ ठदनों का
एकांतवास चाहते हैं।
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कवधान ने सैकनकों को ललकारा। तभी धनुष वाले एक सैकनक ने
उसके कंठ को लक्ष्य करके बाण चला ठदया। कवधान िुती से बाईं
ओर होकर बच गया, परंतु उसके पीछे खड़ा सैकनक वैसी िुती नहीं
ठदखा सका और बाण सीधे उसके वक्ष में जा धूँसा। जब तक
सैकनक दसरा बाण चला पता, कवधान ने उसकी ओर तलवार िेंक
मारी। हवा में घूमती तलवार उसकी छाती में गड़ गई। कवधान ने
अपने पीछे बाण से आहत हुए सैकनक की तलवार ले ली और बाकी
के सैकनकों को ललकारने लगा।
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कवधान ने रक्त से सनी तलवार िेंकी और भागकर गुरु काण के
पास पहुूँचा। उनके कंठ से सारा रक्त बह चुका था। उसने काूँपते
हाथों से गुरु का मस्तक उठाकर अपनी गोद में रखा। वह उनकी
पथराई आूँखों में एकटक झाूँकता रहा। उसका कंठ रुूँ धा हुआ था
और होंठ कंपन कर रहे थे। उसने चारों ओर दे खा, सब कुछ
धुूँधलाता जा रहा था। उसने सूया की ओर दे खा, वह आज भी उसी
प्रकार कनष्ठुर चमक रहा था जब उसके कपता की हत्या हुई थी। वह
स्वयं ही नहीं समझ पा रहा था कक उसे दुख अमधक है या क्रोध।
तभी नायक ने आह भरी, वह धीरे-धीरे सचेत हो रहा था। कवधान
क्रोध से िुिकारता हुआ उठा, नायक का पैर पकड़कर घसीटता
हुआ ले जाकर एक वृक्ष के तने से बाूँध ठदया, किर एक मृतक
सैकनक का भाला उठाकर उसके वक्ष पर कोंचा। कुछ ही क्षणों में
नायक पूरी तरह सचेत हुआ। चारों ओर मरे हुए सैकनकों को
दे खकर उसकी भौंहों पर क्रोध चढ़ गया, परंतु सामने महाक्रोध में
सने कवधान को दे खकर उसका क्रोध भय में बदल गया। कवधान ने
उसके वक्ष पर भाले को जोर से धूँसाया और गरजकर पूछा-
“ककसकी आज्ञा से?”
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के पार कर ठदया। नायक के मुख ने रक्त उगला और लसर एक ओर
लुढ़क गया।
कवधान अपने गुरु की मृत दे ह दे ख रहा था, उसे लगा उसकी शलक्त
क्षीण होती जा रही है। वह बार-बार कल्पना कर रहा था कक गुरु
काण अभी उठकर बैठ जाएूँगे। उसे सत्य का भान था कक यह
असंभव है, किर भी वह कल्पना ककए जा रहा था। कल्पना करते-
करते वह शलक्तहीन पैरों से गुरु के पास पहुूँचा और बगल में बैठ
गया। उनके मुख पर हाथ िेरकर उनकी पथराई आूँखों को बंद
ककया। उसके ऊपर दुख हावी होता जा रहा था। सुदास! आज तक
उसने सुदास को कभी नहीं दे खा था, मात्र नाम ही सुना था, परंतु
उसकी कल्पना ने उसके मत्स्तष्क में सुदास का एक रेखामचत्र खींच
रखा था। इस क्षण उसकी आूँखों के सामने वही रेखामचत्र उभर रहा
था। रेखामचत्र धुूँधला था और धीरे-धीरे बड़ा होता जा रहा था,
अचानक तेज हवा आई और वह रेखामचत्र हवा में घुल गया। रुूँ धे
कंठ से भरााई आवाज में वह जोर से चीखा और अपने गुरु के हृदय
पर लुढ़क गया।
सूया अपनी प्रंचड उष्मा से उसकी त्वचा जला रहा था, परंतु उसे
कुछ भी भान न हुआ। वह गुरु के हृदय से मचपटा बेसुध पड़ा रहा।
उसे होश तब आया जब सूया थक-हार कर लौटने की तैयारी कर
रहा था। उसके होंठ सूख चुके थे तथा शरीर के घाव ददा कर रहे थे।
वह धीरे से उठा और बेसुध नेत्रों से चारों ओर दे खा- मरे हुए
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सैकनकों का रक्त भूमम पर सूख चुका था। आश्रम के कोने में बूँधा
गुरु काण का काला घोड़ा, जजसे प्रेम से वे ‘मयूर’ पुकारते थे, अपने
बंधन छु ड़ाने का प्रयत्न कर रहा था।
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उसकी पीठ पर कसी और किर तलवार, भाला तथा ढाल लेकर
उस पर बैठ गया।
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उसने मरे हुए सैकनकों के पास जाकर कुछ छानबीन की, सतकाता
से चारों ओर दे खा और किर एक ओर चल ठदया
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अगले ही क्षण बैंगनी रंग की पगड़ी पहने उग्रकेतु ने कक्ष में प्रवेश
ककया। उसने अपने राजा की आूँखों में कनराशा और कवरलक्त के
भाव दे खे। वह थोड़ा कवचललत हुआ, सोच ही रहा था कक अपनी
बात कैसे प्रारंभ करे कक राजा खुद बोल पड़े - “आज मध्याह्न के
बाद दक्षक्षणी वन में हमारे सैकनकों ने सुदास के एक अंगरक्षक को
बंदी बनाया... उसने बताया कक सुदास ने आदरणीय काण की
हत्या के ललए अपने अंगरक्षक भेजे थे और वे अपने काया में सिल
भी रहे।”
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“प्रमाणों की क्या आवश्यकता है, उग्रकेतु!... मेरे बाद यह सारा
राज्य उसी का है, किर भी उस महामूखा को न जाने कौन-सी
शीघ्रता पड़ी है। मैं स्वयं ही राज-पाट त्याग कर वानप्रस्थ चला
जाता, परंतु युवराज्याक्षभषेक के बाद उसने जो व्यवहार प्रजा के
साथ ककया, उससे प्रतीत नहीं होता कक वह इस राज्य का उमचत
उत्तरामधकारी है। प्रजा को सुखी-संपन्न बनाने के ललए मेरे पूवाजों
और मैंने जो पररश्रम ककया है, वह उसे एक ठदन में ही धूल-धूसररत
कर डालेगा।”
“महाराज! कवरासत में मात्र जीवन ममलता है, गुण और दोष मनुष्य
की व्यलक्तगत उपलल्ब्धयाूँ हैं। वृक्ष अपने समस्त िलों को एक
समान पोषण दे ता है, पकितु इसके पश्चात भी कुछ िल दकषत हो
जाते हैं...उनके दषण के ललए वृक्ष की भूममका को दोष नहीं ठदया
जा सकता, अतः युवराज के कृत्यों के ललए स्वयं को दोष न दें ।”
उग्रकेतु ने सांत्वना दे नी चाही।
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की ओर मोड़ते हुए पूछा- “बंदी सैकनक ने उस अज्ञात युवक के
पास भूमम-लसजद्ध होने की बात कही है, क्या यह सत्य है?”
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प्रस्थान कनवेदन
आश्रम वाली घटना को तीन ठदन हो चुके थे। संध्या होने वाली थी।
घर पर कवधान अकेला शांकत के पास नीम के वृक्ष के नीचे खाट
डालकर बैठा था। उसके शरीर के घाव अब भी ददा कर रहे थे।
आश्रम वाली घटना उसने माूँ और सत्तू के अकतररक्त ककसी और को
नहीं बताई। वैसे भी उसके जीवन में माूँ और सत्तू के अकतररक्त था
ही कौन। जब से उसने शस्त्र-लशक्षा प्रारंभ की, पूरा ठदन आश्रम में
ही बीत जाता था। धीरे- धीरे ग्राम के अन्य युवकों से संपका टू टता
चला गया। आसपास की घटनाओं की सूचनाएूँ सत्तू ही लाकर दे ता
था। जब माूँ ने आश्रम वाली घटना सुनी तो भयभीत हो उठी थी,
उन्होंने उसी क्षण उससे वचन ले ललया कक वह घर से बाहर न
कनकले। परंतु यह कैसे संभव है कक वह जीवनभर घर में ही बैठा
रहे। वैसे भी स्वयं उसका मन ही नहीं कहता कक वह कहीं जाए।
गुरु काण का स्मरण कर उसका हृदय पीमड़त हो रहा था। उसके
सम्मुख बार-बार सुदास का रेखामचत्र उभरता। उसका शरीर
प्रकतशोध की ज्वाला से जल उठा। वह घटनाओं को जोड़ने का
प्रयास कर रहा था कक सुदास की गुरु काण से क्या शुत्रता हो
सकती थी, परंतु कोई उत्तर न ममला। उसने अपनी बललष्ठ भुजाओं
और ठोस जंघाओं को दे खा, सब अथाहीन प्रतीत हो रहे थे। वह
सामर्थया ही क्या, जो ककसी की रक्षा न कर सके।
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तभी दर धूल उड़ती ठदखी। उसे थोड़ी शंका हुई। ग्राम बहुत बड़ा
था, परंतु घरों की संख्या कम होने से सभी घर एक-दसरे से बहुत
दर-दर बसे थे। एक घर में कुछ हो जाए, तो दसरे को भनक तक न
लगे। वह उठकर आूँगन के दरवाजे पर खड़ा हुआ। आूँखों पर बहुत
बल दे कर, दृकि केंठद्रत करने से धूल की आूँधी में धुूँधली-धुूँधली
आकृकतयाूँ ठदखने लगीं। कुछ ही क्षणों बाद स्पि हो गया कक वे
आकृकतयाूँ घुड़सवारों की हैं। तभी उसे लगा कक कोई उड़ती हुई
वस्तु उसकी ओर आ रही है। उसका मत्स्तष्क चौकन्ना हो उठा,
वह झट से दाईं ओर हटा। सनसनाता हुआ एक बाण उसकी बगल
से होकर बाूँस से बने आूँगन के दरवाजे में धूँस गया। कनक्षश्चत हो
गया कक वे जो भी हैं, शत्रु हैं।
कुछ क्षणों पश्चात उसकी चेतना वापस आई। बंद आूँखों के बीच से
उसने एक जझरी पैदा की और दे खा कक वह वहीं पड़ा हुआ था जहाूँ
उसे पटका गया था। चारों ओर से कवचधारी सैकनकों ने गोल घेरा
बनाकर उसे घेर रखा था। कोई कुछ बोल नहीं रहा था, मानो सब
उसके उठने की प्रतीक्षा कर रहे हों। उसने धीरे से आूँखें खोलीं और
हाथ के बल उठकर बैठ गया। सभी सैकनक चौकन्ने हो उठे । उसकी
जाूँघ का बाण कनकाल ठदया गया था तथा घाव भरने के ललए कोई
औषमध लगी हुई थी। उसने गरदन घुमाकर घेरे के बाहर दे खा।
महाबललष्ठ के साथ एक कवमचत्र बौना खड़ा था। मानो ऊपर से नीचे
सिेद रीछ की खाल पहन रखी हो तथा मुख पर वानर के समान
मुखौटा लगा रखा हो। उसकी कमरपेटी एवं तलवार की मूठ
स्वणाजमड़त थी।
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कवधान ने उठने का प्रयत्न ककया। तभी एक सैकनक, जजसकी
वेशभूषा अन्य सैकनकों से थोड़ी अलग थी, आगे बढ़कर उसे उठने
में सहायता करने लगा। उस सैकनक का सहारा लेकर कवधान खड़ा
हुआ और शंककत दृकि से सबको दे खने लगा। उसकी शंका को
समझकर उस सैकनक ने अपना पररचय ठदया।
घोड़े पूरी गकत से दौड़े जा रहे थे। कवधान कुछ दर दौड़ता और किर
उछल जाता। उछलते-उछलते वह सैन्य टु कड़ी से बहुत आगे
कनकल गया तथा कुछ क्षणों पश्चात घर पहुूँच गया। वहाूँ का दृश्य
ज्वलनशील था। उन धनुधााररयों ने सारी कुठटयों में अग्नन लगा दी
थी। शांकत के उदर में एक बाण लगा हुआ था, वह कनढाल होकर
भूमम पर पड़ी थी, उसके कहल रहे लसर से ज्ञात हुआ कक वह अभी
जीकवत है। मयूर अग्नन से कवचललत होकर अपने बंधन छु ड़ाने का
प्रयत्न कर रहा था। एक कुठटया पूरी तरह जलकर भस्म होने ही
वाली थी। उसने आूँगन में रखे घड़ों के जल से आग बुझाने का
प्रयत्न ककया, परंतु उतना जल पयााप्त नहीं था। तभी सैन्य टु कड़ी
भी आ पहुूँची।
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बौना यकत राजकुमार स्थूल घोड़े से उतरकर भागता हुआ आया।
अपनी स्वणाजमड़त कमरपेटी में बनी छोटी-छोटी थैललयों से कुछ
चूणा कनकालकर आूँगन के मध्य रख ठदया और घड़े से जल लेकर
उस पर कगरा ठदया। चूणा से गाढ़ा पीला धुआूँ कनकला और कुछ ही
क्षणों में पूरी अग्नन को ढूँ क ललया। अगले कुछ क्षणों उपरांत जब
धुआूँ छूँ टा, तब सारी अग्नन बुझ चुकी थी। कवधान के ललए यह
आश्चयाजनक था। उसे शांकत की चचिता हुई। उसने स्थूल का कंधा
थपथपाकर शांकत की ओर संकेत ककया तथा स्वयं जाकर मयूर के
बंधन खोल ठदए। बंधन खुलते ही मयूर आूँगन से कनकलकर भागता
हुआ दर चला गया।
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ककया। सभी सैकनक गकत में आ गए। सैकनकों ने आूँगन में िैली
राख साि की। कुछ सैकनक बाहर लगी बाूँसवाड़ी से बाूँस काटने
लगे। कवधान की जाूँघ की पीड़ा बढ़ गई और अत्यमधक कमजोरी
का अनुभव हुआ, अतः वह शांकत के समीप बैठकर उन सबके
कक्रयाकलाप दे खने लगा।
कवधान के मन में ढे रों प्रश्न उपज रहे थे। सुदास की गुरु काण से
शत्रुता और आश्रम में उनकी हत्या... धनुधााररयों द्वारा उस पर
हमला... अथाला से उसे कनमंत्रण... जजन यकतयों के कवषय में मात्र
कहाकनयाूँ सुनी थीं उनका राजकुमार स्वयं उसके सामने उपल्स्थत
था। वह अकतशीघ्र समस्त प्रश्नों के उत्तर चाहता था। उसे रह-रह
कर कमजोरी का अनुभव हो रहा था।
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बातें बताना और समझाना मेरे अमधकार क्षेत्र में नहीं है। आपकी
शंका का समाधान करने हेतु जजतना मैं बता सकता हूँ, बताता हूँ।”
रूपक ने बताया- “कुंडार की पूवा ठदशा में मुंद्रा राज्य है। बीस वषा
पूवा मुंद्रा सम्राट जयभद्र ने पृर्थवीपकत बनने का अक्षभयान छे ड़ ठदया।
अपनी कवशाल सेना के साथ उसने पूरा जंबूद्वीप रौंद डाला। अनेक
राज्यों को जीतकर वह सम्राट तो बन गया, परंतु पृर्थवीपकत का
सम्मान ग्रहण करने के ललए उसे समस्त जंबूद्वीप को जीतकर एक
पताका के नीचे लाना था। उसके इस अक्षभयान में अथाला सबसे
बड़ी बाधा थी। अतः पंद्रह वषा पहले अथाला और मुंद्रा के बीच
भीषण संग्राम हुआ। उस महासंग्राम में संगम से लेकर काशी तक
गंगा का जल रक्त से लाल हो गया था, अतः उस महासंग्राम को
रक्तगंगा-संग्राम की संज्ञा दी जाती है। उस संग्राम में अथाला तो बच
गई, परंतु अथालाधीश ‘धाता पंचम’ वीरगकत को प्राप्त हो गए।
मरणासन्न अवस्था में उन्होंने अथाला में ‘जननी सवोच्च’ का
कवधान लागू करने का आदे श ठदया। जननी सवोच्च के अनुसार
अथाला का राजससिहासन रानी वसुंधरा ने सूँभाला। कुछ समय तक
सबकुछ व्यवल्स्थत रहा, परंतु कपतृसत्तात्मक समाज में शासन के
कुछ लोगों को एक स्त्री द्वारा शालसत होना अच्छा नहीं लगा।
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न ममला होता, तो सम्राट जयभद्र उसी समय अथाला को रौंद
डालता...”
रूपक बोला- “तीन सौ वषा पूवा अथाला में धाता वंश की नींव पड़ने
के कुछ समय बाद अमरखंड की स्थापना हुई थी। प्रारंभ में
अमरखंड की स्थापना एक लशक्षाकेंद्र के रूप में की गई थी, परंतु
उसकी महत्ता को दे खते हुए वह धीरे-धीरे जंबूद्वीप का केंद्र पबिदु
बन गया। ककसी राजनीकतक झगड़े का कनबटारा हो या
आपातकालीन ल्स्थकत, अमरखंड एक अक्षभभावक की भाूँकत
जंबूद्वीप की सदै व रक्षा करता रहा है। इस समय संपूणा जंबूद्वीप
गहरे संकट में है। पहला संकट सम्राट जयभद्र है। यठद वह अथाला
जीतकर पृर्थवीपकत बन जाता है, तो अपनी कुंठा उतारने के ललए
अमरखंड को नि कर दे गा। एक अक्षभभावक के न होने से घर की
व्यवस्था जजस प्रकार टू टती है, उसी प्रकार अमरखंड के नि होते
ही जंबूद्वीप भी मछन्न-क्षभन्न हो जाएगा और पहले से घात लगाए
बैठी असुर तथा दानव जाकतयाूँ जंबूद्वीप पर अमधकार कर लेंगी।
उनके अमधकार करते ही इस दे श की हजारों वषा पुरानी संस्कृकत
और सभ्यता नि हो जाएगी।
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दसरा संकट भेड़ाक्ष नाम की दै त्य जाकत है। तीन सौ वषा पूवा दे वों
तथा इन दै त्यों के बीच आखखरी दे वासुर-संग्राम हुआ था। उस
महासंग्राम में हार के पररणामस्वरूप भेड़ाक्षों को पातालगंगा भेज
ठदया गया और दे वों को अपनी दे वनगरी अथाला छोड़नी पड़ी, जजस
कारण से अथाला में धाता वंश की स्थापना हुई।
कपछले कुछ वषों से भ्ांकतयाूँ िैल रही हैं कक भेड़ाक्ष अपनी शलक्त
बटोरकर जंबूद्वीप लौटने वाले हैं। यठद भेड़ाक्ष युद्ध के प्रयोजन से
लौटे , तब जंबूद्वीप में न जीवन बचेगा, न संस्कृकत। इन दोनों संकटों
का सामना अथाला को ही करना है...।”
“कब दे खा?”
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“आपने एक ही छलांग में आठ हाथ चौड़ी नहर पार कर ली तथा
सेनाध्यक्ष ससिहनाद पर प्रहार करने के ललए भी अकतमानवीय उछाल
ली थी।” रूपक ने समझाते हुए कहा।
कवधान- “मैं सत्य कहता हूँ, मैंने कोई उपहास नहीं उड़ाया। यह
कला मैंने अपने गुरु से सीखी है, उन्होंने मुझे ककसी अन्य के समक्ष
प्रदर्शित करने से मना ककया था।... प्राण संकट में थे अतः करना
पड़ा।”
कुछ क्षणों तक चुप रहने के बाद कवधान बोला- “वे पाूँच वषा पहले
इस ग्राम में आए थे, तभी से मैं उनसे शस्त्र लशक्षा प्राप्त कर रहा
था। जब भी उनसे उनका इकतहास जाने का प्रयास ककया, उन्होंने
टाल ठदया। बहुत कहने पर गुरु-दक्षक्षणा के समय अपनी कथा
बताने के ललए तैयार हुए, परंतु गुरु-दक्षक्षणा वाले ठदन पापी सुदास
ने सैकनक भेजकर उनकी हत्या करवा दी...” बात पूरी करते-करते
कवधान की भृकुठटयाूँ तन गईं। “मुझे उनके बारे में मात्र इतना ही
ज्ञात है, संभवतः आपको मुझसे अमधक ज्ञात है, अतः कृपया उनके
बारे में कवस्तार से बताएूँ।”
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पहुूँचने पर आपको ज्ञात हो जाएगा।” रूपक ने अत्यंत संक्षक्षप्त में
बताया।
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कवधान कुछ क्षण चुप रहा, किर पूछा- “मुंद्रा के सैकनकों ने मुझ पर
आक्रमण क्यों ककया? उनकी मुझसे क्या शत्रुता?”
“अथाात?”
“जंबूद्वीप में जैसी ल्स्थकत बन रही है, उससे शीघ्र ही युद्ध होने की
संभावना है। अथाला अपनी सैन्य शलक्त बढ़ाने के ललए हर संभव
प्रयास कर रही है। उसी प्रयास के तहत अथाला चाहती है कक आप
अपनी भूमम-लसजद्ध का ज्ञान दे कर नए भूमम-लसजद्ध धारक योद्धा
बनाने में सहयोग करें। हम हर संभव स्थान से संसाधन जुटा रहे हैं
और सम्राट जयभद्र हर संभव प्रकार से हमारे संसाधनों को नि
करने में लगा है। हमारे अकतररक्त उसे भी ज्ञात हो गया है कक आप
अथाला के ललए बहुमूल्य हैं, अतः आपको नि करने का प्रयत्न
ककया।”
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“श्रीमान कवधान! यह संकट तो पूरे जंबूद्वीप का है। जजस ठदन
अथाला नि हो गई, उसी ठदन कुंडार भी नि हो जाएगा। जजस ठदन
कुंडार नि हो गया, यह कैसे संभव है कुंडार में ही ल्स्थत यह ग्राम
सुरक्षक्षत रहेगा। दर ठदखती अग्नन कब स्वयं के घर पहुूँच जाए,
इसका भान भी नहीं होता।” रूपक ने समझाया।
कवधान अपनी भावनाओं में मनन था, तभी नीम के पेड़ पर बैठे
धनुधाारी ने धरती पर ससिदरी रंग का बाण मारा, जो प्रथम स्तर के
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संभाकवत संकट का सूचक था। धनुधाारी ने सामान्य से थोड़ी ऊूँची
आवाज में कहा- “एक स्त्री, एक युवक, एक कुत्ता।” सारे सैकनक
क्षणभर में शस्त्र लेकर आूँगन में िैल गए।
“कोई संकट नहीं, संभवतः मेरी माूँ और भाई होगें,” कवधान ने कहा
और खड़े होकर दे खा। कुछ क्षणों में आकृकतयाूँ स्पि हो गईं और
कनक्षश्चत हो गया, माूँ और सत्तू हैं।
माूँ सत्तू के साथ हाट से वस्तुएूँ लेने पड़ोस के गाूँव गई थीं। वे संध्या
ढलने से पहले वापस लौटना चाहती थीं, परंतु सत्तू के सूचनाएूँ
एककत्रत करने के स्वभाव के कारण कवलंब हो गया। घर का हाल
दे खकर दोनों हक्के-बक्के हो गए। सैकनकों को दे खकर माूँ भयभीत
हो उठीं। सत्तू भी भयभीत हो रहा था, परंतु भय का भाव मुख पर
प्रदर्शित न होने पाए इसका पूरा प्रयास कर रहा था। उसका काला
कुत्ता भागता हुआ कनढाल पड़ी शांकत के पास पहुूँचा और पूूँछ
कहला-कहला कर उसे सूूँघने लगा। माूँ के भयभीत मुख को दे खकर
कवधान आगे बढ़कर उनके पास पहुूँचा और सैकनकों के ममत्रवत
होने की बात कही। किर भी माूँ का भय कम न हुआ।
कवधान ने उन्हें बची हुई रसोई वाली कुठटया में कबठाया और सारा
घटनाक्रम सुनाया। घटनाक्रम सुनकर माूँ का भय और बढ़ गया,
परंतु सत्तू के नेत्रों में कौतूहल नाच रहा था।
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‘भूमम-लसजद्ध’, ‘अथाला’, ‘सम्राट’, ‘सेना’, ‘पृर्थवीपकत’, ‘जंबूद्वीप
पर संकट’, ‘अमरखंड’- सूचनाएं एककत्रत करना सत्तू का कप्रय
काया था, अतः यह सब सुनकर वह रोमांमचत हो रहा था।
पूरा घटनाक्रम सुनाने के बाद तीनों चुप रहे, माूँ कवधान को एकटक
घूरती रहीं किर अचानक अपने हृदय से मचपकाकर िूट-िूट कर
रो पड़ीं। वह माूँ के हृदय से मचपटा रहा। लंबे क्षणों तक रोने के बाद
माूँ स्वयं शांत हो गईं। वे कुछ न बोलीं और स्वयं को व्यवल्स्थत
करते हुए उठीं और भोजन बनाने के ललए कोठरी में रखे घड़ों से
अनाज कनकालने लगीं। कवधान ने दे खा, माूँ के मुख के भाव एकदम
पररवर्तित हो गए हैं। कुछ क्षणों पहले जजस मुख पर भय की काली
छाया थी, वह मुख अब भावहीन हो चुका था। उसे माूँ का यह
व्यवहार बहुत कवमचत्र लगा। वह उठकर माूँ के पास पहुूँचा और
धीमी आवाज में कहा- “माूँ! मैं तुझे छोड़कर अथाला नहीं जा रहा,
बस कुंडार तक जाऊूँगा, उस पापी से प्रकतशोध लूूँगा और वापस
लौट आऊूँगा।” माूँ कुछ न बोलीं, बस उसकी आूँखों में झाूँकती
रहीं, किर दोनों हाथों से उसका मुख पकड़कर मस्तक चूम ललया
और पुनः अपने काया में लग गईं। कवधान वहीं खड़ा कुछ सोचता
रहा, किर सत्तू को लेकर कुठटया से बाहर आ गया। बाहर सभी
उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे।
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कैसे होगा, यठद हर समय मुखौटा पहने रहते हैं तो मुख कैसे धोते
हैं, कम से कम मल त्याग करते समय तो यह खाल उतारते ही होंगे,
कहमालय पर इतनी ठं ड होती है तो नहाते कैसे हैं, कहमालय पर
कौन-कौन सी घास उगती है...सुना है यकतयों के पास कहम ससिह
होते हैं...। स्थूल थोड़ा कवचललत हो गया। स्थूल को संकट में िूँसा
दे खकर रूपक दोनों के पास आया और सत्तू को अपना पररचय
ठदया तथा बात सूँभालते हुए बोला- “लंबी यात्रा के कारण स्थूल
थक गया है, उसे कवश्राम की आवश्यकता है, आपके समस्त प्रश्नों
का उत्तर कल प्राप्त हो जाएगा, तब तक आप अपने बारे में कुछ
बताएूँ।” सत्तू किर शुरू हो गया। उसने बताना प्रारंभ कर ठदया-
जजस ठदन उसने जन्म ललया था, कैसे बादल गरजे थे और तूिान
आया था, कैसे-कैसे उसने लट्टू चलाना सीखा, आज तक लट्टू
िाड़ने की प्रकतयोकगता में कोई उसे हरा नहीं पाया है, कैसे उसने
खरगोश के बच्चे को कुत्तों से बचाया था। एक, एक कर उसने
अपनी सारी जीवनगाथा बता डाली। अंत में अपने जीवन के
महत्वपूणा क्षणों को स्मरण करते हुए उस ठदन की चचाा की जब
उसे रागा ममला था।
“यह है रागा,” सत्तू ने कुत्ते की गरदन सहलाते हुए कहा, “छह वषा
पूवा मुझे यह बकरी के बच्चे के साथ एक गड्ढे में मरणासन्न
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अवस्था में ममला था। मैं दोनों को उठाकर घर ले आया, बकरी का
बच्चा तो नहीं बचा परंतु यह महावीर मृत्यु की काली छाया को
चीरकर लौट आया और कुछ ही ठदनों में स्वस्थ होकर िुदकने
लगा। जब यह भौंकता था तो लगता मानो कोई सुर छे ड़ रहा हो,
अतः मैंने इसका नाम रागा रख ठदया... चल रागा अपना कप्रय गीत
सुना।” सत्तू ने उसकी पीठ सहलाते हुए कहा।
कवधान कुछ क्षण शांत रहा, किर बोला, “ठीक है,” और करवट
लेकर दसरी ओर मुख कर ललया।
49
कुंडार
घोड़े लगातार दौड़े जा रहे थे। घोड़ों को जल कपलाने के ललए मात्र
दो बार रोका गया था। यठद इसी गकत से चलते रहे, तो दोपहर तक
कुंडार पहुूँच जाएूँगे। सत्तू को घोड़े पर बैठने का बहुत कम अभ्यास
था, अतः उसकी जंघाओं और पीठ में ददा होने लगा। बेचारा रागा
जीभ कनकाल कर जैस-े तैसे घोड़ों के बराबर चलने का प्रयास
करता, परंतु कभी-कभी वह पीछे छू ट ही जाता, किर सत्तू रूपक
से घोड़ों की गकत कम करने के ललए कवनती करता। सूया अब तपने
लगा था, परंतु अमधकतर मागा वनों में तय करने से गमी ने अमधक
कवचललत नहीं ककया।
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को बढ़ाने के ललए उसने दसरों का जीवन नि ककया है, उन सुखों
को वह अपने नेत्रों से ही नहीं दे ख पाएगा... नहीं-नहीं इससे भी
संतुकि नहीं ममलेगी...’
उन्हें गुप्तचर कवभाग के पीछे बने कवश्राम भवन में ठहराया गया था।
भवन में दो कक्ष थे, जो आपस में जुड़े हुए थे। एक कक्ष में
ससिहनाद, रूपक, स्थूल तथा दसरे में कवधान और सत्तू ठहरे थे। सत्तू
कनराश था क्योंकक उसे आशा थी कक उसका भव्य स्वागत होगा,
िूल बरसाए जाएूँग,े जनसमूह उन्हें दे खने के ललए लालाकयत रहेगा,
स्नान के ललए सुगंमधत जल की व्यवस्था होगी, क्षभन्न-क्षभन्न प्रकार
के ममिान्न ममलेंगे, परंतु यहाूँ अभी तक मात्र मीठा शबात ही ठदया
गया था।
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53
महाराज ने संकेत से अनुमकत दी। उसके बाद सारांश एक के बाद
एक प्रमाण प्रस्तुत करता रहा और राजसभा में महाक्षभयोग चलता
रहा। पूरे महाक्षभयोग के दौरान सुदास के मुख के भाव एक समान
रहे। शमा, पश्चात्ताप, दुख अथवा क्रोध के भाव क्षणभर के ललए भी
उसके मुख पर नहीं आए। उस पर जजतने भी आरोप लगाए जाते,
उसे स्वीकारने में वह क्षणभर भी नहीं लगाता, जैसे वह चाहता हो
कक यह सब अकतशीघ्र समाप्त हो। प्रमाणों के साथ सारांश ने जजन
रहस्यों को खोला, उन्हें जानकर पूरी राजसभा सन्न रह गई। कुछ
को सुदास पर क्रोध आया और कुछ को उससे सहानुभूकत। पूरे
महाक्षभयोग में बहुत कम तका-कवतका हो सका क्योंकक सुदास ने
कोई प्रकतवाद नहीं ककया, अतः कनणाय शीघ्र ले ललया गया।
54
अपराध में कुंडार राजा चक्रधर सान के एकमात्र जीकवत पुत्र सुदास
से युवराज पद छीना जाता है तथा अघोकषत समय के ललए
कारावास का दं ड ठदया जाता है... क्या युवराज सुदास को यह दं ड
स्वीकार है अथवा वे क्षमा याचना का अंकतम अवसर चाहते हैं?”
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55
रूपक ने कवधान, सत्तू और उग्रकेतु का आपस में औपचाररक
पररचय कराया तथा मुंद्रा के सैकनकों से हुई मुठभेड़ से लेकर कुंडार
पहुूँचने तक का वृत्तांत संक्षेप में सुना ठदया। उग्रकेतु उठा और
महाराज से उनके ममलने की व्यवस्था करने की बात कहकर चला
गया।
कुछ दे र पश्चात उनके कक्ष में भोजन प्रस्तुत हुआ। भोजन लाने
वाली सेकवकाओं के शरीर पर लदे स्वणााभूषणों को दे खकर कुंडार
की संपन्नता का पररचय ममलता था। कवधान की माूँ के पास
स्वणााभूषणों के नाम पर मात्र कान के कुंडल थे, और वे भी पीढ़ी
दर पीढ़ी स्थानांतररत होते हुए उसकी माूँ तक पहुूँचे थे। जबकक
यहाूँ सेकवकाओं ने इतने आभूषण धारण कर रखे थे, मानो वे
आभूषण न होकर उनके वस्त्र हों।
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“संभवतः यह अभी प्राथममक स्तर पर है।”
महाराज कुछ दे र चुप रहे, किर बोले- “ससिह! कुंडार संकट में जा
रहा है।”
“कैसा संकट?”
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बुध सान ने कुंडार बसाया था, मात्र उतनी ही भूमम आज भी कुंडार
के पास है। कुंडार ने अपने उपलब्ध संसाधनों का बुजद्धमत्ता से
प्रयोग कर स्वयं को जंबद्व
ू ीप का सबसे समृद्ध और संपन्न राज्य
बना ललया। यहाूँ अन्य राज्यों की तुलना में अमधक कर वसूला
जाता है। अमधक कर वसूली के कारण दसरे राज्यों की प्रजा यहाूँ
बसना नहीं चाहती, इससे कुंडार को जनसंख्या वृजद्ध के कारण
संसाधनों की कमी का सामना नहीं करना पड़ता। अन्य राज्यों को
आपातकालीन अवस्था जैसे सूखा और महामारी में कुंडार
सहायता करने से कभी पीछे नहीं हटा। सहायता नीकत के कारण
अमधकतर राज्य कुंडार के ममत्र हैं। अतः कुंडार को अन्य राज्यों से
आक्रमण का संकट बहुत कम है।”
61
उग्रकेतु ने आकाश की ओर दे खा, मेघों ने सूया को ढूँ क ललया था,
वषाा की पूरी संभावना थी। थोड़ी दर पर एक वृक्ष के नीचे पत्थरों
पर सभी बैठ गए और उग्रकेतु ने बताया-
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“हाूँ! एक राकत्र वे अचानक कहीं चले गए और बहुत छान-बीन
करने पर भी उनका पता नहीं चला। लोगों ने उन्हें मृत समझ ललया।
परंतु दो वषों बाद वे ससिहनाद को वन में अधामूल्च्छा त अवस्था में
भटकते हुए ममले। लौटने के बाद उन्होंने कवमचत्र बातें बताईं। उन्होंने
बताया कक वे एक साधु के पास भूमम-लसजद्ध सीखने गए थे। जजस
राकत्र वे अदृश्य हुए थे, उसी के पास गए थे। वह साधु उन्हें वन में
अचानक से ममला, उसने उनके गले में एक माला पहनाई, उस
माला से एक सुगध
ं कनकली, जजससे वे मूल्च्छा त हो गए और जब
चेतना वापस आई, तब वह साधु के आश्रम में थे। वहीं उन्होंने
भूमम-लसजद्ध सीखी और दो वषा बाद पुनः वही माला पहनाई गई
तथा मूल्च्छा त होने के बाद वन में उनकी चेतना वापस आई। ककसी
को उन पर कवश्वास नहीं हुआ और एक लड़के की रोमांचक
कल्पना मान ली, क्योंकक सभी जानते थे कक भूमम-लसजद्ध मात्र दे व
ही प्राप्त कर सकते हैं। कवश्वास प्राप्त करने के ललए उन्होंने लोगो
को उछलकर ठदखाया, वह उछाल सामान्य से थोड़ी ऊूँची थी, परंतु
इतनी भी नहीं कक उसे भूमम-लसजद्ध समझा जाता। लोगों के ललए
उनका लौट आना ही महत्वपूणा था, अतः उनकी मानलसक अवस्था
को ठीक न मानते हुए उनकी बातों पर ककसी ने ध्यान नहीं ठदया। वे
तरह-तरह की मुद्राएूँ बनाकर कनरंतर अभ्यास करते रहे और अगले
वषा वार्षिक खेल प्रकतयोकगता में एक ही छलांग में वृक्ष पार कर
सबको ठदखा ठदया कक वे लसजद्धधारक हैं। पूरा जंबूद्वीप सन्न रह
गया। कपछले तीन सौ वषों से कोई लसजद्धधारक नहीं दे खा गया था।
लोगो ने मात्र ग्रंथों में ही वणान पढ़ा था। जो भूमम-लसजद्ध दे वों की
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कवरासत मानी जाती थी, वह प्रथम बार ककसी सामान्य व्यलक्त ने
प्राप्त की थी। कुछ लोग उन्हें दे व भी कहने लगे। वे कनरंतर अभ्यास
करते रहे और अपनी लसजद्ध के स्तर को बढ़ाते रहे। एक ठदन वे दे व
स्तर तक पहुूँच गए। दे व स्तर उस अमधकतम स्तर को कहते हैं,
जहाूँ तक कोई दे व पहुूँचा हो। ग्रंथों के वणान के अनुसार पाूँचवें स्तर
को दे व-स्तर कहते हैं, जजसे मध्यदे व ने रचा था। कुछ समय पश्चात
काण दे व-स्तर को पार कर सातवें स्तर तक पहुूँच गए।
तभी उग्रकेतु के हाथ पर वषाा की मोटी बूूँद कगरी। वषाा इतनी तीव्र
हो गई थी कक उनको आड़ दे ने वाले वृक्ष ने अपनी असमथाता प्रकट
कर दी। सामने थोड़ी ही दर पर मुख्य लशल्पकार का अस्थायी कक्ष
था। उग्रकेतु, कवधान और सत्तू को लेकर कक्ष में पहुूँचा। कक्ष
खाली था, कोने में रखे लकड़ी के पीढ़ों पर बैठने के पश्चात उग्रकेतु
ने आगे बताना प्रारंभ ककया-
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गया। धन कहाूँ उपयोग ककया जा रहा, इसकी सूचना ककसी को न
थी। सुदास ने राजकोष से और धन कनकालना चाहा, परंतु
कोषाध्यक्ष ने मना कर ठदया, तो उसने बलपूवक
ा धन कनकाल
ललया। यह सूचना जब आदरणीय काण को लगी, तो उन्होंने
राजकोष का अमधकार स्वयं ले ललया। सुदास ने उन्हें राजा का
कवद्रोही बताकर मृत्युदंड दे ने का आदे श ठदया। परंतु काण को स्पशा
करने का साहस ककसी को न था। राजकोष से धन न कनकलता दे ख
सुदास ने अपने अमधकार का प्रयोग कर पूरे कुंडार से जबरन कर
वसूलने का आदे श ठदया। उसने संदेशवाहक गरुड़ों को मरवा ठदया,
ताकक महाराज तक संदेश शीघ्रता से न पहुूँचाया जा सके। कुंडार
की वह प्रजा जो कर की सीमा में नहीं आती थी, उससे भी
बलपूवाक कर वसूला गया। जो कर दे ने में कवरोध करे, उसे मृत्युदंड
दे ने का आदे श था। उस कर वसूली में हजारों की कनमाम हत्या की
गई। हमारी सूचनाओं के अनुसार संभवतः उसी समय आपके कपता
की भी हत्या हुई थी...”
उग्रकेतु कुछ क्षणों के ललए रुका, उसे बगल में बैठे कवधान के श्वासों
की तेज गकत सुनाई दे रही थी।
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राजा के आदे श से उन पर महाक्षभयोग चलाने के ललए बाध्य था।
आदरणीय काण अत्यंत दुखी हो गए और कुंडार त्यागने का कनणाय
ले ललया। सभी ने उन्हें महाराज के लौटने तक प्रतीक्षा करने को
कहा, परंतु वे माने नहीं। उन्होंने कहा कक कुंडार में उनकी भूममका
समाप्त हो चुकी है, किर वे कुंडार त्यागकर अज्ञातवास में चले गए।
महाराज के लौटने पर सुदास ने उन्हें भी बंदी बनाने को कहा, परंतु
महाराज के आदे श पर सुदास को कारागार में डाल ठदया गया।
कुंडार का एकमात्र भावी उत्तरामधकारी और कुंडार के सम्मान को
ध्यान में रखते हुए बुरी मानलसक अवस्था को कारण बताकर
सुदास को क्षमादान दे ठदया गया और आदरणीय काण की खोज
करने अन्य राज्यों में गुप्तचर भेजे गए।
कुछ ठदनों पूवा गुप्तचरों द्वारा ज्ञात हुआ कक सुदास, सम्राट जयभद्र
की सैन्य सहायता से तख्ता पलटने की योजना बना रहा है। भानय
से उसी समय आदरणीय काण को भी खोज कनकाला गया। वैसे तो
आदरणीय काण ने युद्ध त्याग ठदया था, परंतु उनकी उपल्स्थकत मात्र
से ही कुंडार को बल ममल जाता। महाराज ने मुझे आदरणीय काण
को वापस कुंडार लाने भेजा। दुभाानय से इस बारे में सुदास को भी
भनक लग चुकी थी। उसे लगा अगर काण वापस आए, तो
संभवतः सम्राट जयभद्र अपनी सैन्य सहायता रोक लें, तब उसकी
योजना कविल हो जाएगी। अतः उसने अपने कवश्वासपात्र
अंगरक्षकों को भेजकर उनकी हत्या करवा दी। आज राजसभा में
उस पर महाक्षभयोग चलाकर अघोकषत समय के ललए कारावास का
दं ड दे ठदया गया।”
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उग्रकेतु ने कवधान की ओर दे खा, उसके माथे पर पड़ रहे बल को
दर से भी दे खा जा सकता था।
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पदाथा भी कनःशुल्क ही ठदए जाते हैं और लत लग जाने के बाद
उनसे मोटा धन वसूलते हैं। ये नशीले पदाथा मनुष्य को इतना लती
बना दे ते हैं कक वे दानवों के दास बन जाते हैं। उन नशीले पदाथों
को प्राप्त करने के ककए लती मनुष्य कुछ भी दे ने को तैयार हो
जाता है। दानवों का मुख्य लक्ष्य उस राज्य का युवराज होता है,
क्योंकक वह राजकोष से धन कनकाल सकता है। अतः वे उसे
अमधक स्तर का महूँगा नशीला पदाथा दे ते हैं, ताकक राजकोष
शीघ्रता से खाली हो। इस प्रकार धीरे-धीरे वे उस राज्य का सारा
धन खींचकर उसे आर्थिक रूप से कमजोर बना दे ते हैं, किर उस
पर आक्रमण कर अपना अमधकार जमाने में दे र नहीं करते। नशे में
धुत और आर्थिक रूप से कमजोर राज्य अमधक प्रकतरोध नहीं कर
पाते। दानवों ने इसी नीकत पर चलते हुए पक्षश्चमी दे शों में अपना
साम्राज्य कवस्तार ककया है।
सुदास प्रवृलत्त से थोड़ा दुि अवश्य है, परंतु उसके कृत्यों के ललए
दानव अमधक दोषी हैं। सुदास ने वही ककया, जो नशे का लती कोई
भी व्यलक्त करता है, परंतु वे कपटी दानव योद्धाओं की भाूँकत
युद्धभूमम में लड़ने के स्थान पर मनुष्य को खोखला करने की नीकत
अपनाते हैं। यह तो कुंडार का भानय था कक कवमध मंत्री सारांश ने
समय रहते कठठन छानबीन कर सारी घटनाओं से अवगत करा
ठदया।”
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वह कक्ष में लेटा हुआ था, आूँखें बंद थीं, परंतु वह कनद्रा में नहीं था।
उसके मन का अंतद्वं द्व उिान पर चढ़ रहा था। वह जजसे दं ड दे ने
आया था, वह तो स्वयं ही दं ड पा रहा है। उसे मृत्यु दे कर वह
उसकी यातना को कम नहीं करना चाहता... अब तक का जीवन
उसने प्रकतशोध की अग्नन में जजया था। अपने कपता के हत्यारे को
दं ड दे ना ही उसके जीवन का लक्ष्य था, तो क्या उसके जीवन का
लक्ष्य समाप्त हो गया। उसके कपता की हत्या का वास्तकवक दोषी
कौन है?... सुदास?... अथवा उसको नशीले पदाथा दे ने वाले
दानव?... परंतु दानव तो सदै व से यही नीकत अपनाते आए हैं, यह
नीकत तो वषों पुरानी होगी... तो क्या इस नीकत को बनाने वाला
प्रथम व्यलक्त दोषी है?... अथवा इन नशीले पदाथों को बनाने वाला
सृकिकताा?... कौन है वास्तकवक दोषी?... हत्या करने वाला वह
सैकनक?... अथवा उस तलवार को बनाने वाला लोहा, जजसको
उसके कपता के वक्ष में उतारा गया था...कौन है दोषी?... कौन?...
सुदास?... दानव?... सृकिकताा?... सैकनक?... लुहार?...
कौन...कौन...?
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चाकहए... क्या आप भूल गए... बचपन में हमने तय ककया था कक
बड़े होकर हम सारा संसार घूमेंगे... भाूँकत-भाूँकत के लोगों से
ममलेंगे... नए िल खाएूँगे... नई धरती दें खेंगे...?”
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शरीर में लसरहन दौड़ गई। उनको दे खकर लगता था, मानो ककसी
शव को भूमम खोदकर कनकाल ललया गया हो। वस्त्र के नाम पर पूरा
शरीर तथा मुख तेल से सनी पठट्टयों से ढूँ का हुआ था, आूँखों की
पुतललयाूँ ही एकमात्र जीकवत अंग थीं। जो बाहर से ठदखता था,
उसमें भी पुतली का काला भाग सिेद था। उनके हाथों में चीथड़ों
से ललपटे डंडे थे और कमर में छोटी तलवार एवं छु रे लटक रहे थे।
अगले ही क्षण तीनों कवधान पर टू ट पड़े। दोनों पक्ष डंडों का प्रयोग
तलवार की भाूँकत कर रहे थे। रागा भी भौंकने में पूरा जोर लगाए
हुए था, परंतु उसकी उपल्स्थकत उन पर कोई प्रभाव नहीं डाल पा
रही थी। उनके युद्ध-कौशल को दे खकर कवधान ने अनुमान लगा
ललया कक ये सामान्य सैकनकों की श्रेणी के नहीं हैं। युद्ध करते-करते
कवधान ने एक के मस्तक पर डंडा दे मारा। उस भीषण प्रहार से
उसका मस्तक घूमने लगा, कुछ क्षणों के ललए शत्रु को असावधान
दे खकर कवधान ने उसके पेट पर एक जोरदार लात जड़ दी।
शलक्तशाली प्रहार खाकर पीछे की ओर लड़खड़ाते हुए वह उसी
वृक्ष से टकराया, जजस पर सत्तू चढ़ा था।
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इधर-उधर भागने के िेर में वह एक वृक्ष से टकरा गया। टक्कर
जोरदार थी, उसका मस्तक िट गया। चकराते हुए मस्तक को
पकड़कर वह वहीं बैठ गया और जलता हुआ लबादाधारी उसकी
ओर बढ़ने लगा। कवधान ने दे खा कक सत्तू के प्राण संकट में हैं, वह
लबादाधारी सत्तू पर प्रहार करने ही वाला था। कवधान ने लड़ना
छोड़ क्षणभर के ललए ध्यान केंठद्रत ककया और दायाूँ पग भूमम पर
जोर से पटका। दसरे ही क्षण वह लबादाधारी हवा में उछलकर दर
जा कगरा, मानो कक उसके पैर के नीचे कोई कवस्िोट हुआ हो। उसी
क्षण दसरे लबादाधारी को अवसर ममल गया। उसने कवधान की
पीठ पर डंडे से जोरदार प्रहार ककया। डंडे का स्पशा होते ही उसके
शरीर को ऊजाा का तेज झटका लगा। उस लबादाधारी ने डंडे को
उसके शरीर से मचपकाए रखा। कवधान का शरीर झटके खाता रहा,
उसकी आूँखें िैल गईं, मुख टे ढ़ा होने लगा, नसें िूलने लगीं, सारा
शरीर अकड़ने लगा, कुछ ही क्षणों में वह पूरी तरह कनढाल होकर
भूमम पर कगर पड़ा।
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स्थूल ने सत्तू के मस्तक पर औषमध लगा दी और खाने को कुछ
चूणा ठदए, किर सत्तू ने सारी घटना कवस्तार से बताई। उन
लबादाधाररयों के बारे में सुनकर ससिहनाद का मुख और गंभीर हो
उठा।
78
1 कवधान
2 प्रस्थान कनवेदन
3 कुंडार
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